रफ़्ता-रफ़्ता यूं ही, उम्र-ए-तमाम बीत जाती है।
ये शिद्दत-ए-दर्द, बहुत हो चुकी है सनम,
फ़रिश्ते आ गए, तुम भी आओ, के जान जाती है।
हम भला ग़वारा करें, तर्के उल्फ़त को कैसे,
इक यही चीज़ तो, दुनिया में काम आती है।
मुनकतआ कैसे तआल्लुक हो, मय-ओ-मीना से,
मुझको प्याले में भी, सूरत तेरी नज़र आती है।
तलकीन कर रहे हैं, दोस्त अहबाब ’नरेश" को फिर भी,
लिखता है जो पैग़ाम, वो तेरी ही तहरीर बन जाती है।
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