वर्षा की बून्दों ने शीतलता का पाठ पढाया हो जैसे।
अपनेपन को मान-सम्मान का शाल ओढाया हो जैसे।
ठोकर खा रहे थे मंजिलों की खातिर, भटके मुसाफ़िर,
उन अन्धेरे रस्तों पे दिल का चराग़ जलाया हो जैसे।
रोक ली ख़ुदगर्जी ने,जिन परिन्दों के हौंसलों की उड़ान,
गर्द साफ कर, आसमां की सीढियां चढाया हो जैसे।
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