शनिवार, 6 अगस्त 2011

मुराद-ए-इश्क मांगने की आदत नहीं


चिराग़-ए-जिन्न घिस कर मुराद-ए-इश्क मांगनें की आदत नहीं।
करेगा फ़िक्र "वो" ही मेरी, मुझे अपनी फ़िक्र करने की आदत नहीं।


नादान है ये  जिन्दगी, जो  लेती  है मेरा  इम्तहान बार बार,
उनके हसीन  महलों में, दरबारी बनने की  हमें आदत नहीं।


अपने महबूब को सीढियां बनकर , शिखर तक पहुंचाया मैने,.
दोस्त क्या दुशमन  को भी, नज़र से गिराने  की आदत नहीं।


पसमांदगी में भी अपने अज़्म को रखा बुलन्द हमने ए दोस्त,
ताश के पत्तों में हुक्म का गुलाम बनने की आदत नहीं।


जमाने के कहर से टूटा आशियां, खुले आसमाम में सो गए,
मुझे सुर्ख़ मयकदों में रात ग़ुज़ारने की   आदत नहीं।


जिस हाल में हूं खुश हूं मैं, ए- मेरे चाराग़र मुझे,
बेहिसाब ख़्वाहिशों के कबूतर, पालने की आदत नहीं।
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