बुधवार, 6 जुलाई 2011

टुकड़ों में बंटी जिन्दगी


मयकदों में यूं कटी जिदगी।
जैसे टुकड़ों में बंटी जिदगी।


रास्तों से भटके मुसाफ़िर,
किनारों से सटी जिन्दगी।


रौनक-ए- जहां में रह कर भी,
वनवासी सीता, बनी जिन्दगी।


ना चान्द, ना तारे दूर तलक,
खाली आसमां, बनी जिन्दगी।


छावं की तलाश में भटका,
कड़ी धूप सी बनी जिन्दगी।


दरवाजे बन्द हो ना हो कभी,
तालों की मांनिन्द अटी जिदगी।


मदद-ए- महल तामीर किया,
सितमग़र, तूफ़ां से ढ़ही जिन्दगी


यूं उम्र तो हर साल  बढी मग़र,
लम्हा लम्हा  , घटी जिन्दगी।
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