शनिवार, 9 जुलाई 2011

जिन्दगी ख़्वाबों से हार गई

जिन्दगी मेरी ख़्वाबों, से जब हार गई।
लौटे जब तलक़, गुलशन से बहार गई।


ये जिन्दगी इक खूबसूरत हादसा सा है,
कभी बरखा, कभी पतझड़, कभी बहार हुई।


ढूंढती रहती थी, जिनको नज़रें, यहां वहां,
हुआ सामना तो, तबियत क्यूं बेकरार हुई।
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