रविवार, 30 जनवरी 2011

बोल उठेंगे खंडहर भी देखिए


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दहशत की रातें, रतजगों का मन्जर भी देखिए।
चुप है ये जमीं, उठ रहा जो समन्दर भी देखिए।


क्यों उछल कूद रहे हो, इन्सानियत के सीने पर,
आदमी तो बन रहा फिर से, बन्दर भी देखिए ।


इन्सानियत की खातिर, बहादुरी दिखाता नहीं कोई,
इश्क-ओ-कुर्सी के बहुत हैं, धुरन्दर भी देखिए ।


कर रहे हो तुम, जिन परस्तारों पर यकीन,
छुपा है उनकी, आस्तीनों में खन्जर भी देखिए ।


क्यों लड़ रहे हो तुम, इन सब्ज बागों की खातिर,
इस कदर तो हो जाएगी जमीं, बन्जर भी देखिए।


सितम सह लिए हमने, अब तलक चुप रह कर,
सर से गुज़रे तो बोल उठेंगे, खंड़हर भी देखिए।


माजी के मझधार में क्यों डूब रहे हो "नरेश"
मुस्तकबिल के किनारों से बन्धा है, लंगर भी देखिए।
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