बड़ी वीरान-ओ-परेशां है ये जिन्दगी अपनी।फ़कत चन्द लम्हों की मेहमां है जिन्दगी अपनी।
क्या खिलेंगे फूल भला, कैसे आएंगी बहारें,
अब तो इक उजड़ा गुलिस्तां है जिन्दगी अपनी।
कोई हमदम नहीं ना कोई हमनशीं अपना,
बेवज़ह हुई किस तरफ रवां ये जिन्दगी अपनी।
तेरे शहर में भला क्यूं कर रहेंगे हम ए दोस्त,
जो मिट चुका जहां से वो निशां है जिन्दगी अपनी।
वफ़ा फरोश जहां रास नहीं आ सका मुझको,
सहरा की तरहा आज बियाबां जिन्दगी है अपनी।
था जिस पे नाज़ वो दोस्त, दोस्त ही ना रहा,
कि जिसके नाम पे तमाम कुर्बां है जिन्दगी अपनी।
ना करना मौत पर मेरी तूं जरा भी अफसोस,
अब तो इक बोझ और एहसां है जिन्दगी अपनी।
तुझे "नरेश’ बहारों की तमन्ना है भला क्यूं कर
वहीं पे ठीक है जहां पे है ये जिन्दगी आपनी।
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