उदासियों के पल, हमसफर हो गए।
इसी तरह से दिन, बसर हो गए ।
गांव दिल, में जो सुकूं के बसाए थे,
तन्हाईयों के खौफ से, नगर हो गए।
मिले थे जो लम्हात, हसरतों के लिए,
कशमकश में ही वो, यूं ही गुज़र हो गए।
जो चराग़ हमने, जलाए थे इबादत के लिए,
चराग़ वो, ज़ालिम, आंधियों की नज़र हो गए।
ताज़ बने होंगे कितने ही मग़र, एक को छोड़,
सबके सब, बे-वफ़ाई से खंडहर हो गए।
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