रविवार, 30 जनवरी 2011

बोल उठेंगे खंडहर भी देखिए


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दहशत की रातें, रतजगों का मन्जर भी देखिए।
चुप है ये जमीं, उठ रहा जो समन्दर भी देखिए।


क्यों उछल कूद रहे हो, इन्सानियत के सीने पर,
आदमी तो बन रहा फिर से, बन्दर भी देखिए ।


इन्सानियत की खातिर, बहादुरी दिखाता नहीं कोई,
इश्क-ओ-कुर्सी के बहुत हैं, धुरन्दर भी देखिए ।


कर रहे हो तुम, जिन परस्तारों पर यकीन,
छुपा है उनकी, आस्तीनों में खन्जर भी देखिए ।


क्यों लड़ रहे हो तुम, इन सब्ज बागों की खातिर,
इस कदर तो हो जाएगी जमीं, बन्जर भी देखिए।


सितम सह लिए हमने, अब तलक चुप रह कर,
सर से गुज़रे तो बोल उठेंगे, खंड़हर भी देखिए।


माजी के मझधार में क्यों डूब रहे हो "नरेश"
मुस्तकबिल के किनारों से बन्धा है, लंगर भी देखिए।
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गुरुवार, 27 जनवरी 2011

तन्हाईयों का खौफ


    
उदासियों के पल, हमसफर हो गए।
इसी तरह से दिन, बसर हो गए ।


गांव दिल, में जो सुकूं के बसाए थे,
तन्हाईयों के खौफ से, नगर हो गए।


मिले थे जो लम्हात, हसरतों के लिए,
कशमकश में ही वो, यूं ही गुज़र हो गए।


जो चराग़ हमने, जलाए थे इबादत के लिए,
चराग़ वो, ज़ालिम, आंधियों की नज़र हो गए।


ताज़ बने होंगे कितने ही मग़र, एक को छोड़,
सबके सब, बे-वफ़ाई से खंडहर हो गए।


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सोमवार, 10 जनवरी 2011

जहां है जिन्दगी अपनी

बड़ी  वीरान-ओ-परेशां है ये जिन्दगी अपनी।
फ़कत चन्द लम्हों की मेहमां है जिन्दगी अपनी।


क्या खिलेंगे फूल भला, कैसे आएंगी बहारें,
अब तो इक उजड़ा गुलिस्तां है जिन्दगी अपनी।


कोई हमदम नहीं ना कोई हमनशीं अपना,
बेवज़ह हुई किस तरफ रवां ये जिन्दगी अपनी।


तेरे शहर में भला क्यूं कर रहेंगे हम ए दोस्त,
जो मिट चुका जहां से वो निशां है जिन्दगी अपनी।


वफ़ा फरोश जहां रास नहीं आ सका मुझको,
सहरा की तरहा आज बियाबां जिन्दगी है अपनी।


था जिस पे नाज़ वो दोस्त, दोस्त ही ना रहा,
कि जिसके नाम पे तमाम कुर्बां है जिन्दगी अपनी।


ना करना मौत पर मेरी तूं जरा भी अफसोस,
अब तो इक बोझ और एहसां है जिन्दगी अपनी।


तुझे "नरेश’ बहारों की तमन्ना है भला क्यूं कर
वहीं पे ठीक है जहां पे है ये जिन्दगी आपनी।
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