शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

मेरी पांच ग़ज़लें

                           ( एक)
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हाल-ए-दिल पूछ तो लो दुनिया को दिखाने के लिए।
पोशीदा है कुछ राज़ फ़कत तुमको सुनाने के लिए ।


अपनी तकदीर का मैं हाल किसी से क्या कहूं ,
दिल में  हैं कई, ज़ख़्म ज़माने से छुपाने के लिए ।


किस्सा-ए-दर्द जो दुनिया को बताया ना अब तलक,
 मैं हूं बेताब फ़क़त , तुमको सुनाने के  लिए ।


ग़म-ए-हिज़रां से, पशेमां हूं बहुत मैं लेकिन ,
आ भी नहीं  सकता मैं , तुमको मनाने के लिए ।


और भी दर तो बहुत होंगे , दुनिया में फिर क्यूं,
बरक-ए-दुनिया है , मेरे ही आशियाने के लिए ।


ग़ैर के पहलू में हो तुम, मैं ये मन्ज़र  देखूं ,
मरना मुश्किल नहीं होगा फिर, तेरे दीवाने के लिए ।


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                                 (दो)
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दबी ज़बां से उल्फत का पैग़ाम दे गया कोई ।
खिल उठे फूल दिल में, नए अरमान दे गया कोई ।


ग़मों की मार से , अब तलक ज़बां बन्द थी मग़र,
पूछ कर हाल-ए-दिल, ज़बान दे गया कोई।


कोई निशां न था , ज़मी-ओ-आसमां पर हमारा,
जुड़ा है नाम उनसे, जो इक पहचान दे गया कोई।


नासूर हो गये थे ज़ख़्म, नामुराद ज़िन्दगी को ढोते,
रखा जो हाथ कान्धे पर उसने, आराम दे गया कोई।


बिछुड़ के मुझसे वो , फिर मिला मुझे इस कदर,
यूं लगा मुझे जैसे, इक एहसान दे गया कोई ।


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                     (तीन)

इक इसां का लहू, बह गया पानी की तरहा।
इमां जो था अमृत, बह गया पानी की तरहा।


आज हर शख़्श, के चेहरे से अयां होता है,
इक अफसाना सा, माजी की निशानी की तरहा।


न कोई आह, न फरियाद, न जुस्तजू  बाकी,
सितम सह लिया, ज़माने का मेहरबानी की तरहा।


कोई मंजिल न कोई रास्ता, ना कोई मेरा वज़ूद,
हर नक्श मिट चुका है, निशानी की तरहा ।


मैंने कब किया तुमसे, दुखों का इज़हार ए दोस्त,
खुद-ब-खुद आ गया, ये बचपन से जवानी की तरहा।


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                           (चार)
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गुलशन सज़ाया था फूलों से, मग़र फसले खार आ गाया।
कर माफ ख़ता , फिर से तेरे दर पे खतावार आ गया।

तूफां के बाद मैं, ठहरा हुआ दरिया हूं चुप हूं यारब,
समझे कश्ती किनारे लगी, मग़र फिर से मझधार आ गया।


दौलत-ए-हुस्न ने बरपा किए, हज़ारों कहर बारहा,
अब मरने को थे हम, तो क्यूं तेरा सलाम आ गया।


बिछुड़ के खाई थी कसमें, करेंगे ना अब याद तुम्हें,
बरसा जो सावन, तो यूं ही तेरा ख़्याल आ गया।


तोड़ कर अहदे वफ़ा , चले गये थे तुम्ही  सनम,
अब जी रहे थे सुकूं से, तो हम पे इल्ज़ाम आ गया।


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              (पांच)
जब हुस्न की गुफ्तगू होने लगी । 
यादें तनहाई के बीज बोने लगी ।


आंखें खुली थीं उनके आने तलक,
उठ कर चले गए वो अंजुमन सोने लगी।


हमने तो अश्क पी लिए तेरे हिज्र में,
देख हाल-ए-आशिक दुनिया रोने लगी।


सूख गया दरिया-ए-वफ़ा तेरा शहर ,
आंखें हमारी समन्दर समन्दर होने लगीं।


चली है बात अश्कों की यहां वहां,
मैय्यत पे मेरी, तुम क्यों दामन भिगोने लगी।


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